यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युथानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्य्हम
परित्रानाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्मसंस्थाप्नार्थाया संभवामि युगे युगे
श्री कृष्ण के ये वचन हर युग में उतने ही प्रासंगिक हैं जितने की द्वापर युग में। महाभारत की कथा हमे यही सिखाती है की निष्काम फल की इच्छा से कर्म को करने वाला ही जीवन में सफलता पाता है। फिर ऐसा क्यूँ है की हम सांसारिक भोगों की तृष्णा में अपने लक्ष्य से भटक जाते हैं। अर्जुन भी जब लक्ष्य से भटक गया था तब उसे समझाने में वासुदेव ने संसार को एक अनमोल उपहार भेंट किया जिसे हम गीता उपदेश कहते हैं। जो व्यक्ति निहित स्वार्थ को भूलकर सिर्फ़ कर्म पर ध्यान देता है वो संसार में सबसे परम स्थान को पाने के योग्य हो जाता है।दूसरे धर्मों की तरह श्री कृष्ण ने ये कभी नही कहा की मोक्ष का मार्ग ख़ुद को कष्ट देना या जीवन से विरक्त हो जाना है बल्कि उन्होंने तो इस जीवन को पूर्ण रूप से आनंद के साथ भोगने के लिए कहा है। उनका मानना है कि सबसे बड़ा वैराग्य इसी में है कि बिना किसी स्वार्थ के कर्म करते हुए ख़ुद को धर्म की रक्षा में अर्पण कर देना। हर युग में श्री कृष्ण की तरह मार्ग दिखाने वाले लोग पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं , आवश्यकता है तो सिर्फ़ उन लोगो पर ध्यान देने की जो कहते हैं कि धर्म कि मार्ग पर चलना ही हितकारी है और धर्म के लिए किसी भी चीज़ का त्याग करना पड़े तो वो अनिवार्य है। ख़ुद को श्री कृष्ण को अर्पण कर देना ही सब दुखों का निवारण है।
Thursday, July 23, 2009
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